अच्छे दिन आएंगे?

हमने भी देखा एक सपना,
किससे कहूँ सपनों की बात,
नन्हकू किसान की मेहरिया
सोचती है,
सोचती  है-
अबकी नन्हकू आवेगा
तो, उससे कहेगी
मेरे लिए भी ले आना
शहर से
एक ठो  'बिन्दी'
और
एक ठो   
'सिन्दूर की डिब्बी' 
बच्चों के लिए
एक सस्ता जूता,
एक स्कूल बैग,
कुछ किताबें, कुछ कापियां
और पेन्सिल भी,
अबके फसल
कुछ ठीक लगी है  .....


नन्हकू शहर से
लौट आया है ,
खाली हाथ,
हताश !
क्या हुआ ?
नन्हकू की मेहरिया ने पूछा ,
नन्हकू कुछ नहीं बोला,
बैठा रहा, गुम-सुम, उदास ...
नन्हकू के मन में भी
उठती रही, उसके
मन की बात -
मंडी के ठेकेदारों  ने
औने-पौने में
आलू खरीद लिया,
पैसे भी पूरे नहीं दिये,
बीज के पूरे दाम भी
नहीं निकले,
कहाँ से लाऊँ
बच्चों के लिए जूते,
किताबें,
और  उसके लिए
'बिन्दी' ?
साहूकार ने बीज के पैसे
मंडी में ही रखवा लिए,
फिर वही
साल भर की फाका-कसी,
फिर साल भर का
इन्तजार,
फिर उधार,
फिर कर्ज ,
कब आयेंगे
मेरे अच्छे दिन ?


'सिलिंडर की' कौन कहे,
खाने-पीने से लेकर
डीजल-पेट्रोल,
हर चीजों के दामों में
उन्नति हो रही है,
बस किसान मर रहे हैं,
'वादों'  के पिटारों से
'वादों'  के फूल
अब भी झड़ रहे हैं।
फूल तो फूल हैं,
चाहे वे कागज के हों
या फिर,
असल ही,
सभी एक दिन 
मुरझा जाते हैं ...


नन्हकू ने देखा
रात का स्याह अँधेरा,
पर, 
सुबह का उजाला
नहीं देख सका,
भोर के पंछी
चह-चहा रहे थे
पर नन्हकू का  'पंछी'
अँधेरे में ही गुम हो गया...