महाभारत के शान्तिपर्व में एक विद्वान दम्पति का वार्तालाप पढ़ने लायक है। महषर््िा देवल की पुत्री सुवर्चला बड़ी विदुषी और दार्शनिक चिंतक थी, साथ में अत्यंत रूपसी भी थी। यह एक अद्भुत संयोग था। वह बड़ी होने लगी तो पिता को उसके योग्य वर ढूंढने की चिंता सताने लगी। उसने अपने पिता से अपने विवाह के सम्बन्ध में एक शर्त रखी और कहा कि-आप मुझे ऐसे पति के हाथ सौंपिये, जो अंधा भी हो और नेत्रवान भी हो, मेरी इस प्रार्थना को सदा याद रखना। पिता ने कहा-बेटी! ऐसा पति मिलना तो मुश्किल है। सुवर्चला बोली-तो फिर स्वयम्बर आयोजित कीजिये। सभी ब्राह्मण कुमारों, )षिकुमारों को उसमें बुलाइये। स्वयम्बर हुआ लेकिन सुवर्चला के योग्य कोई वर उपलब्ध नहीं हुआ। अंत में महषर््िा उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु वहां उपस्थित हुए तो उसने कहा-
‘‘सोऽहं भद्रे समागतः“-भद्रे मैं वही हूँ जिसे तुम चाहती हो, मैं तुम्हारे लिए ही आया हूँ। मैं अपने मन में सदा ऐसा ही मानता आया हूँ कि मैं अंधा हूँ, यह सच्ची बात है। साथ ही मुझे अपने बारे में कोईई ग़लतफ़हमी नहीं है। मैं नेत्रवान् भी हूँ, मैं विशाल नेत्रों से युक्त भी हूँ। तुम मुझे ऐसा ही समझो। मेरा प्रस्ताव है कि तुम मेरा वरण करो, मैं तुम्हें अभीष्ट सि(ि प्रदान करूंगा। सुवर्चला ने कहा इसका क्या प्रमाण है कि तुम अंधे भी हो और नेत्रवान् भी? श्वेतकेतु ने जबाब दिया कि तुम्हारी शर्त के पहले भाग का उत्तर तो यह है कि-
येनेदं वीक्ष्यते नित्यं वृणोति स्पश्र्यतैथ वा।
घ्रायते वक्ति सततं येनेदं रसते पुनः ।।
येनेदं मन्यते तत्वं येन बुध्यति वा पुनः।
न चक्षुविद्यते हियेतत् स वै भूतांध उच्यते।।
जिस परमात्मा की शक्ति से जीह्वा चीजों का स्वाद लेता है, तत्व का मनन करता है और बु(ि द्वारा निश्चय करता है, वह परमात्मा ही “चक्षु“ कहलाता है। जो इस चक्षु से रहित है, वही प्राणियों में अंधा कहलाता है। और परमात्मारूपी नेत्र से युक्त होने के कारण मैं अनंध नेत्रवाला भी हूँ। और अब तुम्हारी शर्त के दूसरे हिस्से के बारे में मेरा कहना यह है कि-
यस्मिन प्रवर्तते चेदं
पश्यन्न शृण्वन् स्पृश्यन्नपि।
जिघ्रश्च रसयं स्तद्वद् वर्तते येन चक्षुसा।।
तन्मे नास्ति ततो हिअँधों
वृणु भद्रेद्य मामतः।।
जिस परमात्मा के भीतर ही यह सारा संसार अपने दैनिक व्यवहार में प्रवृत होता है, यह दुनिया जिस आँख से देखती है, कान से सुनती है, त्वचा से स्पर्श करती है, नासिका से सूँघती है, जिह्वा से स्वाद और रस ग्रहण करती है एवं जिस दुनियादारी की नज़रों से यहां का बर्ताव चलता है, उससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, उसके लिए मैं अंधा हूँ। मैं उस तरफ देखता भी नहीं इसलिए उस व्यवहार के अर्थ में तुम मुझे मैं अंधा ही समझो। अतः भद्रे तुम मेरा वरण करो। खैर! सुवर्चला किसी तरह संतुष्ट तो हुई, उसने विवाह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया लेकिन वह श्वेतकेतु के ज्ञान की थाह लेने के लिए कुछ और दार्शनिक प्रश्न बातचीत के अंदाज़ में पूछने लगी। यह बातचीत भाषा विज्ञान पर एक तरह की बहस है जिसको यहां प्रस्तुत करना काफी लंबा हो जाएगा। इस प्रसंग से भारतीय मनीषा की गहराई की प्रतीति होती है।
मनीषा मिलन